बेटे के नाम फौजी पिता का पत्र

बेटे के नाम फौजी पिता का पत्र

प्रिय बेटे हर्ष,
चिरंजीवी हो,
सत्रह वर्ष का लंबा समय बीत चुका है और आश्चर्य है कि आज तक तुम्हें कोई पत्र नहीं लिखा मैंने। यूँ भी पत्र आज कल फैशन में नहीं हैं। हम भी तो इतने वर्षों से साथ साथ ही हैं। पत्र में कहता भी तो क्या? तुम पूछोगे कि “अब ये पत्र क्यों? ऐसे ही कह देते न आमने सामने।”
 
पर होती हैं कुछ बातें जो शायद लिख कर ज़्यादा बेहतर कही जा सकती हैं। 
 
तुम्हारे जन्म के वक़्त मैं अपनी बटालियन के साथ उत्तरी अफ्रीका में तैनात था। तब तुम्हारी मम्मी से सब बातें पत्रों में ही हुआ करती थीं। ज्यादातर तुम्हारे बारे में ही थीं। उसके बाद सियाचिन की अथाह ऊँचाइयों पर पत्रों के साथ मिलने वाली तुम्हारी फोटो ने डटे रहने की हिम्मत दी। वो एक अलग जीवन था। उन पत्रों में सपने थे, उम्मीदें थीं, डर थे, यथार्थ था, भविष्य था और कितने ही रंगों में तुम थे।
 
आज सत्रह की वय पार करके तुम अपने जीवन के दूसरे चरण में प्रवेश करने वाले हो। हमारे साये से दूर होने वाले हो। अपने पाँवों पर खड़े होने का ये पहला कदम है। इसलिए मुझे लगा कि ये पत्र ज़रूरी सा हो गया है।
 
कारण यह भी है कि कह नहीं पाता हर पिता मन की हर बात। डरता है कि कुछ छूट न जाये या  कुछ गलत न समझ लिया जाए या। इसलिए ये पत्र तुम्हारे सामान में छुपा कर रख रहा हूँ।
 
अपनी आशाएँ लिखना आसान है अपने डर लिखना आसान नहीं होता। पत्र में क्या लिखना चाहिए, क्या नहीं, इन्टरनेट और सोशल मीडिया के इस युग में तय करना बड़ा मुश्किल काम है। प्रथम पुरुष में बात करना भी मुश्किल लगता है। लेक्चर देना आसान है, समझाना भी, पर तुम्हारे साथ दोस्त की तरह बात करना ज़रा मुश्किल है। गोद में खेलते हुए बच्चे से तुम कब हमारे कंधे तक पहुँच गए पता ही नहीं चला। कान उमेठकर डाँट लगाना मानों कल ही की बात है। अब जब तुम्हें गले लगाता हूँ तो लगता है तीस बरस पहले वाले अपने आप से मिल रहा हूँ। ये एक अनुभव है जिसे शब्दों का जामा अभी तक नहीं पहनाया है। आज भी कोशिश ही कर सकता हूँ। तुम ही बताना सफल रहा या नहीं।
 
हिंदी तुम धीरे धीरे पढ़ पाते हो, इस बात पर कितना हँसने के बाद भी हिंदी में ही लिख रहा हूँ क्योंकि सारी भावनाएँ इसी भाषा में सोची और जी हुई हैं। 
 
तुममें मैं खुद को देखना चाहता हूँ, या उसे जो मैं बनना चाहता था। क्या तुम वो सब करोगे जिसकी मैं बातें किया करता हूँ या फिर कुछ और ही? मैं किस मुकाम पर हूँ ये लिख पाना आसान नहीं है पर खुशी हासिल करो ये तमन्ना है। ज़मीन-जायदाद को खुशी कहा जाए, ऐशो – आराम के साधनों को ये नाम दिया जाए या फिर उम्र के पहले पड़ाव पर मानसिक शांति को खुशी कहूँ और तुम्हें उलझा दूँ?
 
पर तुम मन की करना अवश्य। जीना खुल कर। हमारे डरों को दरकिनार करते हुए तुम अपना रास्ता खुद चुनना। तुम जानते हो सही और गलत को। पहचानते हो हमारी और अपनी कमजोरियों को, बस उन्हें राह का रोड़ा मत बनने देना। तुम जीना हर पल को, हर दिन को अपने तरीके से। मैं तो चाहता हूँ कि तुम्हारे एक दिन में अड़तालीस घण्टे हों और कोई भी काम तुम्हें जल्दी में न करना पड़े। यह भी कामना करता हूँ कि तुम वक्त की कीमत भी समझो।
 
तुम हार से घबराना मत। मैंने कितने ही काम सिर्फ इस डर से नहीं किये कि सफल नहीं हुआ तो लोग क्या सोचेंगे। क्या कहेंगे। पर तुम्हें इन चिंताओं से मुक्त रहना है और अपने संसार में अपनी मन पसंद के रंग भरने हैं। दूसरे लोग तो हर बात के लिए ही कुछ न कुछ कहेंगे। सबको अनसुना करना आसान नहीं होता पर तुम करना। अपने पिता से बेटा क्या कह सकता है क्या नहीं, मुझे आज तक नहीं पता। पर तुम मुझसे सब कहना। आज तक जैसे रहे हो वैसे ही रहना। मेरे भीतर का पिता चाहता है कि तुम और बड़े मत हो, इतने ही रहो, निश्छल और मासूम, दुनिया के थपेड़ों और प्रपंचों से परे।
 
मेरे भीतर का भीरू पुरुष चाहता है कि तुम सीधे चालीस के हो जाओ। फांद लो मेरी प्रार्थना से, समय की यह अदृश्य मगर ऊँची दीवार। इस तरह निपट लो संघर्षों से बिना कष्ट के। पर मेरे भीतर एक फौजी भी है न। वो तुम्हें पसीना बहाते देखता है। संघर्ष करके जीतते देखना चाहता है। हर बार हर चुनौती पर तुम्हें पहला स्थान पाते देखता है ये सिपाही। उसे हासिल करना बेटे। चुनौतियों से डरना और भागना नहीं। सच का साथ नहीं छोड़ना।
 
तुम जा रहे हो, अब और नहीं रोकना चाहता। हमारा प्रेम तुम्हें कहीं कमज़ोर न कर दे। पता नहीं है न कितने मजबूत हो तुम। याद है जब पहली बार अकेले गए थे ट्रेन में तुम तो कितना हंगामा हुआ था घर में। सबने फोन पर कितना डराया था। मना भी किया पर इस सब के बावजूद भी मैंने तुम्हें भेजा और तुम कितने सहज थे। लेकिन उस यात्रा और इस यात्रा में फर्क है। वहाँ तुम्हें लेने के लिए कितने लोग आए थे, इस बार कोई नहीं होगा। इस नयी स्वतंत्रता के साथ आने वाले कल का बहुत बड़ा बोझ भी है तुम्हारे साथ। निभा लेना। तुम निभा लोगे। ये जानता हूँ । तुम मेरी छाया होते हुए भी मुझ से अलग हो। ये भी पता है। जो कुछ अच्छा लगा हो, उसे आत्मसात कर लेना बेटे, जो कमियाँ देखी हों, उन्हें बताना मत, बस नज़रंदाज़ कर देना। छुट्टी पर जब आओगे तो तुम्हारी बातों में दुनिया का अलग चेहरा होगा। उसमें मैं और तुम्हारी मम्मी अपनी अपनी झलक ढूंढेंगे। तुम ही पूरे ज़माने के लिए हमारी छवि हो बेटे। हम जैसे भी रहे हों तुम अच्छे ही बनना।
 
ईश्वर हमेशा तुम्हारे साथ रहे और तुम्हें सन्मार्ग पर चलने की शक्ति दे। तुम्हारा हमेशा भला चाहने में तुम्हारी मम्मी और छोटी बहन हमेशा मेरे साथ हैं।
 
आशीर्वाद सहित
 
तुम्हारा पापा