How to Kill a Lion/ शेर से मुकाबला

How to Kill a Lion/ शेर से मुकाबला

कश्मीर घाटी 1995- 97.       बात सन 1996 में कश्मीर घाटी के कुपवाड़ा जिले की है जहाँ उस वक्त हमारी पलटन तैनात थी. मैं उस समय कप्तान था, चार्ली कंपनी कमांडर. उम्र थी कोई 26 वर्ष. सीमा के नज़दीक होने के कारण हमारे इलाके में आतंकवादियों की हरकत काफी थी और आये दिन किसी न किसी टुकड़ी से मुठभेड़ हो ही जाती थी. घुसपैठ की कोशिश भी ज़ोरों पर थी और हमारा मुख्य काम था, उसको रोकना और घुसपैठियों को श्रीनगर पहुँचने से पहले ही मार गिराना. सभी कंपनियों को निगरानी के लिए अलग अलग इलाका मिला हुआ था और इलाका भी क्या, ऊँचे पहाड़ और घने जंगल. पेट्रोलिंग (गश्त), एम्बुश (घात लगाना) और सर्च (खोजबीन) इत्यादि मुख्य ऑपरेशन (कार्रवाही) हुआ करते थे. घने जंगल और पहाड़ों में आने जाने के रास्ते कुछेक ही होते हैं इसलिए उन रास्तों पर हमारी कड़ी निगरानी थी. एक शाम बटालियन मुख्यालय से एक बड़े आतंकवादी दल की घुसपैठ की संभावित कोशिश की खबर आयी. पूरी ब्रिगेड को ही अगले कई दिन तक अपने कैंप से बाहर रहना था. खबर के मुताबिक़ हमारे इलाके से घुसपैठ होने का अंदेशा ज्यादा था. नयी बात ये थी कि घुसपैठ रात के बजाय सुबह होने के आसार थे. आतंकी भी हमारी कार्रवाही से कुछ कुछ परिचित थे. चूहे बिल्ली का ये खेल कई वर्षों से जो चल रहा था.

एम्बुश की वो लम्बी रात और शेर से मुकाबला.    खैर, योजना के अनुसार हमें मुख्य रास्तों पर एम्बुश लगना था और पूरी तजवीज सीओ (कमान अधिकारी) साहब ने खुद बनायी थी. “सतर्क रहना, किसी को हमारे वहां होने की खबर तक न हो” रेडियो पर ओके रिपोर्ट के वक़्त कमान अधिकारी ने हम सब से कहा.  मेरी कंपनी के दस्ते आधी रात के बाद बेस से निकले. सूबेदार माने के साथ 25 जवान और मेरे साथ 30 जवानों का दल था. एक टोली रिज़र्व(अतिरिक्त) के तौर पर हवालदार कृष्णा के साथ थी. हथियार, गोला बारूद और भिन्न भिन्न उपकरणों से लैस टोली का जंगल में चुपचाप चलना अपने आप में बड़ी बात है. खैर बिना ज्यादा आवाज़ किये मेरी टोली निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच गयी. हमने पूरे इलाके की जाँच की और रास्ते की निगरानी के लिए टोली को तीन तीन जवानों के दस्तों में बाँटा. फिर एक एक करके सभी दस्तों को मैंने उनके नियत स्थान पर तैनात किया और साथ ही फायर खोलने सम्बन्धी सुरक्षा आदेश दिए. हर दस्ते में लम्बी दूरी तक मार करने वाला एक स्वचालित हथियार था और मध्य वाले दो दस्तों के पास राकेट लांचर और मोर्टार भी थे. जब मैं अपने दस्ते के पास पहुंचा तो नायक रेड्डी और बाकी पाँचों जवान झाड़ी में छुपे होने के बजाय खड़े हुए थे. गुस्से को काबू करते हुए मैंने आवाज़ दबा कर पूछा “क्या बेवकूफी है ये, अपनी जगह से क्यूँ हिले ? “ रेड्डी, जो कि उनका सीनियर था, ने आँख से इशारा किया और बोला “साहब  !!! शेर !!”  मैं भी चौंका. कंपनी कमांडर को शेर कहने का वो स्थान और समय बिलकुल अनुपयुक्त था. “क्या बात है रेड्डी, सुबह सुबह पिये हुए हो क्या ?”  अपने गुस्से को दबाते हुए मैंने कहा. “साहेब अपने बाएं देखो ” रेड्डी ने फुसफुसा कर कहा. मैंने नज़र घुमाई तो मुझसे तकरीबन सात फुट की दूरी पर काले गोल धब्बों वाला तेंदुआ खड़ा था. हमारे जवानों के लिए बिल्ली से बड़ा उस जाति का कोई भी जीव शेर ही होता है. अगले दो मिनट मेरे फौजी जीवन के सब से लम्बे दो मिनट थे. हनुमान चालीसा का पाठ मन में चल रहा था क्यूंकि ज़रा सी अलग हरकत होते ही तेंदुआ मुझ पर हमला कर सकता था. वो हम से कितना डरा हुआ था, कहना मुश्किल था, पर कंपनी कमांडर होने के नाते मेरा डरना पूरी बटालियन में गलत सन्देश दे देता. “एक गोली चलाने दो साहब, मार देते हैं इसे ” रेड्डी ने हल्की आवाज़ में पूछा. गोली चलने से पूरा ऑपरेशन ही खतरे में पड़ सकता था. जानवरों के प्रति श्रीमती मेनका गाँधी के विचारों से मैं भली भांति वाकिफ था, इसलिए मैंने गर्दन हिला कर मना कर दिया और डटा रहा. वैसे भी वहाँ डटे रहने के अलावा मेरे पास कोई और चारा भी नहीं था. कुछ और सेकंड तक दोनों ओर से कोई हरकत नहीं हुई और हनुमान जी की कृपा से भाई साहब (तेंदुए) ने कदम पीछे हटाये और थोड़ी ही देर में झाड़ियों में ओझल हो गए.

शेर सिंह का जन्म.     हमारा दल सुबह दस बजे तक वहाँ रहा पर आतंकवादियों से मुलाक़ात नहीं हुई. वापस लौटते समय  मेरे जवानों के चेहरे पर आदर और प्रशंसा मिश्रित नए भाव थे. अगले दो दिन में वो खबर नमक मिर्च लगाकर पूरी ब्रिगेड में फ़ैल गयी. किसने किस से क्या कहा कोई नहीं जानता पर तीसरे दिन सप्लाई की गाड़ी के ड्राईवर ने, जो सब्जियां और बाकी रसद ले कर कैंप में आया हुआ था, सीनियर जेसीओ से पूछा “शेर सिंह साहब की कंपनी यही है ना? साहब जी हैं क्या?” मैं अपनी खिड़की के पास खड़ा सुन रहा था. मैंने अपने सहायक से पूछा “ये शेर सिंह कौन है?” तब जा कर सिपाही रमेश ने खुलासा किया कि बटालियन में फैली खबर के अनुसार एम्बुशके दौरान शेर ने कंपनी कमांडर पर (यानि कि मुझ पर) हमला कर दिया था और कंपनी कमांडर ने (यानि कि मैंने) निहत्थे ही उसे पछाड़ दिया था. सभी जवानों ने जोश में आकर मेरा ही नाम शेर सिंह रख दिया था. आरोप इतना जबरदस्त था कि मैंने खबर को न स्वीकारा और न ख़ारिज किया.