सियाचिन का सिपाही : कैप्टेन सचिन बाली

सियाचिन का सिपाही : कैप्टेन सचिन बाली

सचिन (टाई में )  के साथ लेखक…..

( एक नौजवान फौजी अफसर के सहस और शौर्य की अनूठी दास्ताँ… ये सच्ची कहानी है… )

 

जी हाँ , कैप्टेन सचिन बाली का अंतिम फौजी मिशन आदेश की अवहेलना थी . उस मिशन में न केवल सचिन बुरी तरह ज़ख़्मी हुए बल्कि उनकी टोली के अधिकतर जवान भी मौत के कगार पर पहुँच गए थे . ऐसा क्या था कि सचिन को वो कठिन निर्णय लेना पड़ा और अपनी जान को जोखिम में डालना पड़ा ? ये कहानी दिल्ली के एक पंजाबी परिवार के हँसमुख और बेहद जोशीले नौजवान की कहानी है जिसने तीन वर्ष के अल्प सेवा काल में ही अपने अद्मय साहस का परिचय दिया और पूरे देश के लिए मिसाल बना . ये कहानी सियाचिन ग्लेशियर की उन अथाह ऊँचाइयों में कहीं बर्फ में दबी है, उन आठ जवानों के साथ जिनको बचाने सचिन का दल निकला था . मार्च 2003 का वो दिन जब कि पूरी उत्तरी सीमा पर बर्फ के सैलाबों ने सत्तर से भी अधिक जीवन छीन लिए . सचिन की कंपनी की एक चौकी का उस तूफानी रात में अपने हेडक्वार्टर से संपर्क टूट गया . बटालियन मुख्यालय  से और मौसम विभाग से सख्त  ताकीद थी कि कोई भी टुकड़ी बाहर न निकले. पर नौजवान सचिन को यह मंज़ूर नहीं था. उन्हें हर हाल में अपने जवानों को बचाना था . यही बात उन्हें इस कहानी का हीरो बनाती है . कुछ घंटे इंतज़ार करने के बाद भी जब टेलिफ़ोन और रेडियो से संपर्क नहीं हुआ तो सचिन का खोजी दल उनके नेतृत्व में उस तूफ़ान में निकल पड़ा. समुद्र तल से 19000 फुट की ऊँचाई पर शून्य से 50 डिग्री नीचे तापमान और बर्फीले तूफ़ान में सचिन के दल ने भारतीय सेना की बहादुरी की परम्परा में एक और कहानी जोड़ दी.

सन् 1999 में अफसर ट्रेनिंग अकादमी से सचिन बाली ने मराठा रेजिमेंट में अधिकारी के तौर पर प्रवेश लिया. अपनी बालसुलभ मुस्कान और आसमान छूने के इरादे वाले लेफ्टिनेंट सचिन बाली की पहली तैनाती अफ्रीका में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना के तहत हुई. पर सचिन को  इस से कोई ज्यादा ख़ुशी नहीं हुई . उनके भीतर का सिपाही  अपनी सीमाओं की  रक्षा के लिए बना था और व्यग्र था . खैर अफ्रीका से आते ही बटालियन को सियाचिन में तैनाती का आदेश मिला और शीघ्र ही सचिन को अपने मन की करने का मौक़ा मिला . ‘सब सेक्टर हनीफ’ सियाचिन का सबसे कठिन इलाका माना जाता है . कारण ये था कि वहाँ हिमस्खलन या एवलांच और भूस्खलन का ख़तरा सबसे ज्यादा है . सचिन की अपनी चौकी बिलकुल ही पकिस्तान सीमा से लगी हुई थी और वो वक़्त था जब दोनों ही तरफ से गोलाबारी लगभग रोज़ ही होती थी. सियाचिन पर तैनात रहा हर फौजी जानता है कि न सिर्फ दुश्मन बल्कि मौसम और ऊंचे पहाड़  भी वहाँ सैनिकों के शत्रु हैं. सचिन की ज़िम्मेदारी के इलाके में सब कुछ ठीक चल रहा था और दुश्मन की  हर हरकत का मुंहतोड़ जवाब दिया जाता था. सचिन के लिए शायद इस से अच्छा कोई समय कभी था ही नहीं.

तो साजो सामान और बर्फीले इलाके के विशेष कपड़ों से लैस सचिन का दल निकल पड़ा अपने साथियों की  खोज में . दल को लगा कि दो  घंटे के अंदर वो उस चौकी तक पहुँच जायेगा और संपर्क वापस स्थापित कर लेगा. आमतौर पर भी उस चौकी पर पहुँचने में इतना ही वक़्त लगता था. पर उस दिन होनी को कुछ और ही मंज़ूर था . सचिन के दल का सामना भयंकर तूफ़ान से था.  बर्फ ने सारा मंज़र ही बदल दिया था. कुछ मीटर से ज्यादा आगे देखना मुश्किल था. सियाचिन के लिए बने  विशेष कपड़े एक निश्चित समय तक ही कारगर होते हैं. सचिन की टोली को निकले बारह घंटे से भी ज्यादा हो गए थे और धीरे धीरे बर्फ और मौसम का असर उनके शरीर पर होने लगा था. पर सचिन ने हिम्मत नहीं छोड़ी. आखिर अपने फँसे हुए जवानों की ज़िन्दगी का सवाल था. उनके दल का संपर्क भी बटालियन हेडक्वार्टर  और बाकी चौकियों से टूट गया .अगले दिन जब इस दल से संपर्क स्थापित  हुआ तो इस टोली के अधिकतर लोग बुरी तरह घायल थे . बर्फ ने उनके अंगों को धीरे धीरे करके शिथिल कर दिया. सभी की उँगलियों और चेहरे पर सबसे ज्यादा असर पड़ा . सचिन ने पूरी टोली का मनोबल बनाये रखा और रेडियो से सन्देश दे कर हेलीकॉप्टर को बुलवाया. खुद बुरी तरह घायल होने के बादजूद भी सचिन ने हेलीकॉप्टर में बैठने से मना कर दिया और कहा कि पहले सब जवानों को  बचाया जाए. यही जज्बा सचिन को उन बहादुरों के श्रेणी में ले जाता है जिन्होंने हमेशा अपनी जान से ज्यादा अपने जवानों की परवाह की है . मौसम ख़राब होने के कारण हेलीकॉप्टर से बचाव कार्य भी दो दिन में पूरा हो सका. तब तक सचिन की  हालत और भी बिगड़ चुकी थी पर उसने हेलीकॉप्टर में बैठने से मना कर दिया. आखिर में जब सचिन की बारी आयी  तो उनके हाथ पाँव बुरी तरह से ज़ख़्मी हो चुके थे और चेहरा सूज गया था, आँखें बंद हो चुकीं थी और साँस लेना भी मुश्किल हो गया था . कुल मिलाकर बचने की उम्मीद कम थी . पर सचिन ने न केवल सियाचिन में बल्कि अस्पताल में भी अपने हौसले की मिसाल दी और अपनी मुस्कान को एक पल के लिए भी जाने नहीं दिया. हाथ पाँव की कुल मिला कर  नौं उँगलियाँ गँवाकर भी सचिन ने धैर्य नहीं खोया. लम्बे समय सचिन और उनकी टोली के बाकी सदस्य अस्पताल में रहे जहाँ उन्हें कृत्रिम अंग लगाये गए.

कहानी यहाँ समाप्त नहीं होती है. सचिन ने अस्पताल से निकल कर  सेना से स्वैच्छिक निवृत्ति ले ली . सब के  लाख समझाने  पर भी उन्होंने अपना इरादा नहीं बदला. सचिन का कहना था “ सर , सेना को एक सक्षम अधिकारी की ज़रुरत है और अब मैं सेना को वो सेवा नहीं दे सकता. मैं बोझ बन कर नहीं रहना चाहता. सचिन ने 6 महीने की  दिन रात की तैयारी के बाद प्रतिष्ठित IIM की परीक्षा उत्तीर्ण की और एक सैनिक के जज्बे का अनोखा उदहारण रखा.  आज सचिन एक अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी  में ऊँचे पद पर हैं और दुनिया घूमने के अपने सपने को पूरा करने में लगे हैं. हाल ही में उनसे मिलना हुआ तो बरबस ही  सियाचिन के वो दिन याद आये. सचिन की भोली मुस्कान आज भी वैसी ही है और उनके अन्दर का सिपाही आज भी ज़िंदा है. कैप्टेन सचिन बाली सियाचिन से बड़ा नहीं है पर सियाचिन और हमारा देश सचिन जैसे लाखों नौजवानों की  हिम्मत और  कुर्बानियों से ही महान बनता है. सचिन और सेनाओं के उन तमाम बहादुरों, जिन्होंने मातृभूमि की आन और सैनिक के गौरव को अपने जीवन से भी हमेशा ऊपर रखा, को सलाम . जय हिन्द